चंद्रमा Poetry (page 4)

अश्क-बारी का मिरी आँखों ने ये बाँधा है झाड़

वलीउल्लाह मुहिब

वो क्या दिन थे जो क़ातिल-बिन दिल-ए-रंजूर रो देता

वली उज़लत

वक़्त बोसे के मिरा मुँह उस के लब से जूँ जुड़ा

वली उज़लत

न शोख़ियों से करे हैं वो चश्म-ए-गुल-गूँ रक़्स

वली उज़लत

मैं वो मजनूँ हूँ कि आबाद न उजड़ा समझूँ

वली उज़लत

माह-ए-कामिल हो मुक़ाबिल यार के रू से चे-ख़ुश

वली उज़लत

ख़ुदा शाहिद बुतो दो-जग से ये सौदा है निर्वाला

वली उज़लत

ख़ुदा किसी कूँ किसी साथ आश्ना न करे

वली उज़लत

जिन दिनों हम उस शब-ए-हज़ के सियह-कारों में थे

वली उज़लत

जब तन न रहा मेरा हूँ वासिल-ए-जानाना

वली उज़लत

दर्द जूँ शम्अ' मिले है शब-ए-हिज्राँ मुझ को

वली उज़लत

बहार आई ब-तंग आया दिल-ए-वहशत-पनाह अपना

वली उज़लत

ऐ नासेह चश्म-ए-तर से मत कर आँसू पाक रहने दे

वली उज़लत

अगर मैं मोजज़े को ख़ाकसारी के अयाँ करता

वली उज़लत

हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है

वली मोहम्मद वली

याद करना हर घड़ी उस यार का

वली मोहम्मद वली

तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है

वली मोहम्मद वली

इश्क़ में सब्र-ओ-रज़ा दरकार है

वली मोहम्मद वली

हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता

वली मोहम्मद वली

ज़िंदगी दस्त-ए-तह-ए-संग रही है बरसों

वकील अख़्तर

लहूलुहान समुंदर भी देखना है अभी

वाजिद क़ुरैशी

पड़ा है पाँव में अब सिलसिला मोहब्बत का

वाजिद अली शाह अख़्तर

दिखाते हैं जो ये सनम देखते हैं

वाजिद अली शाह अख़्तर

यही है इश्क़ की मुश्किल तो मुश्किल आसाँ है

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

'वहशत'-ए-मुब्तला ख़ुदा के लिए

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

हुए हैं गुम जिस की जुस्तुजू में उसी की हम जुस्तुजू करेंगे

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

आह-ए-शब नाला-ए-सहर ले कर

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

कोई न चाहने वाला था हुस्न-ए-रुस्वा का

वहीद क़ुरैशी

तवाना ख़ूबसूरत जिस्म

वहीद अख़्तर

पत्थरों का मुग़न्नी

वहीद अख़्तर

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