हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है
देखा है जिस ने हुस्न-ए-तजल्ली बहार का
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आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
हुए हैं राम पीतम के नयन आहिस्ता-आहिस्ता
मुफ़लिसी सब बहार खोती है
तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है
ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
इश्क़ बेताब-ए-जाँ-गुदाज़ी है
किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
फिर मेरी ख़बर लेने वो सय्याद न आया
मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़्साना हो रहा हूँ
आशिक़ के मुख पे नैन के पानी को देख तूँ
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त