चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त
जा तमाशा देख उस रुख़्सार का
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मैं आशिक़ी में तब सूँ अफ़्साना हो रहा हूँ
हुआ ज़ाहिर ख़त-ए-रू-ए-निगार आहिस्ता-आहिस्ता
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
दिल हुआ है मिरा ख़राब-ए-सुख़न
दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन
ख़ूब-रू ख़ूब काम करते हैं
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
भड़के है दिल की आतिश तुझ नेह की हवा सूँ
किया मुझ इश्क़ ने ज़ालिम कूँ आब आहिस्ता आहिस्ता
सजन टुक नाज़ सूँ मुझ पास आ आहिस्ता आहिस्ता
आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में
तख़्त जिस बे-ख़ानमाँ का दस्त-ए-वीरानी हुआ