गुल हुए ग़र्क़ आब-ए-शबनम में
देख उस साहिब-ए-हया की अदा
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जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
मत ग़ुस्से के शो'ले सूँ जलते कूँ जलाती जा
जब तुझ अरक़ के वस्फ़ में जारी क़लम हुआ
छुपा हूँ मैं सदा-ए-बाँसुली में
दिल तलबगार-ए-नाज़-ए-मह-वश है
तुझ लब की सिफ़त लाल-ए-बदख़्शाँ सूँ कहूँगा
वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा
राह-ए-मज़मून-ए-ताज़ा बंद नहीं
हर ज़र्रा उस की चश्म में लबरेज़-ए-नूर है
दिल-ए-उश्शाक़ क्यूँ न हो रौशन
सोहबत-ए-ग़ैर मूं जाया न करो