नदी Poetry (page 4)

आरिज़-ए-शम्अ' पे नींद आ गई परवानों को

ज़हीर काश्मीरी

आइने में ख़ुद अपना चेहरा है

ज़हीर ग़ाज़ीपुरी

जो ज़ेहन ओ दिल में इकट्ठा था आस का पानी

ज़हीर अहमद ज़हीर

ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ

ज़फ़र ताबिश

ये किस ने आँख को नंगा किया है दरिया में

ज़फ़र सिद्दीक़ी

तमाम शहर में कोई भी रू-शनास न था

ज़फ़र सिद्दीक़ी

ये क्या तहरीर पागल लिख रहा है

ज़फ़र सहबाई

बदन पर सब्ज़ मौसम छा रहे हैं

ज़फ़र सहबाई

हर्फ़-ए-तदबीर न था हर्फ़-ए-दिलासा रौशन

ज़फ़र मुरादाबादी

सिमटूँ तो सिफ़्र सा लगूँ फैलूँ तो इक जहाँ हूँ मैं

ज़फ़र कलीम

राब्ता क्यूँ रखूँ मैं दरिया से

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

एक इक पल तिरा नायाब भी हो सकता है

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त

ज़फ़र इक़बाल

तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है

ज़फ़र इक़बाल

कैफ़ियत ही कोई पानी ने बदल ली हो कहीं

ज़फ़र इक़बाल

यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए

ज़फ़र इक़बाल

ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो

ज़फ़र इक़बाल

तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है

ज़फ़र इक़बाल

सिमटने की हवस क्या थी बिखरना किस लिए है

ज़फ़र इक़बाल

फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर

ज़फ़र इक़बाल

नहीं कि तेरे इशारे नहीं समझता हूँ

ज़फ़र इक़बाल

ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए

ज़फ़र इक़बाल

इतना ठहरा हुआ माहौल बदलना पड़ जाए

ज़फ़र इक़बाल

हम ने आवाज़ न दी बर्ग ओ नवा होते हुए

ज़फ़र इक़बाल

हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं

ज़फ़र इक़बाल

गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का

ज़फ़र इक़बाल

एक ही बार नहीं है वो दोबारा कम है

ज़फ़र इक़बाल

दिन पर सोच सुलगती है या कभी रात के बारे में

ज़फ़र इक़बाल

चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है

ज़फ़र इक़बाल

इक नदी में सैकड़ों दरिया की तुग़्यानी मिली

ज़फर इमाम

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