दीवार Poetry (page 5)

हम-नशीं उन के तरफ़-दार बने बैठे हैं

ज़हीर देहलवी

दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है

ज़फ़र सहबाई

रखा है बज़्म में उस ने चराग़ कर के मुझे

ज़फ़र सहबाई

रखा है बज़्म में उस ने चराग़ कर के मुझे

ज़फ़र सहबाई

निगाहों में जो मंज़र हो वही सब कुछ नहीं होता

ज़फ़र कमाली

ज़िंदगी को शो'बदा समझा था मैं

ज़फ़र इक़बाल ज़फ़र

पलट पड़ा जो मैं सर फोड़ कर मोहब्बत में

ज़फ़र इक़बाल

जिसे दरवाज़ा कहते थे वही दीवार निकली

ज़फ़र इक़बाल

हमारा इश्क़ रवाँ है रुकावटों में 'ज़फ़र'

ज़फ़र इक़बाल

अपने ही सामने दीवार बना बैठा हूँ

ज़फ़र इक़बाल

यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए

ज़फ़र इक़बाल

यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को

ज़फ़र इक़बाल

तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है

ज़फ़र इक़बाल

फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर

ज़फ़र इक़बाल

न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ

ज़फ़र इक़बाल

लर्ज़िश-ए-पर्दा-ए-इज़हार का मतलब क्या है

ज़फ़र इक़बाल

लब पे तकरीम-ए-तमन्ना-ए-सुबुक-पाई है

ज़फ़र इक़बाल

कुछ सबब ही न बने बात बढ़ा देने का

ज़फ़र इक़बाल

खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे

ज़फ़र इक़बाल

जिस ने नफ़रत ही मुझे दी न 'ज़फ़र' प्यार दिया

ज़फ़र इक़बाल

हवा-ए-वादी-ए-दुश्वार से नहीं रुकता

ज़फ़र इक़बाल

छुपा हुआ जो नुमूदार से निकल आया

ज़फ़र इक़बाल

चमकती वुसअतों में जो गुल-ए-सहरा खिला है

ज़फ़र इक़बाल

बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं

ज़फ़र इक़बाल

बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने

ज़फ़र इक़बाल

अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ

ज़फ़र इक़बाल

दर्द बहता है दरिया के सीने में पानी नहीं

ज़फर इमाम

नहीं मालूम आख़िर किस ने किस को थाम रक्खा है

ज़फ़र गोरखपुरी

तो फिर मैं क्या अगर अन्फ़ास के सब तार गुम उस में

ज़फ़र गोरखपुरी

पल पल जीने की ख़्वाहिश में कर्ब-ए-शाम-ओ-सहर माँगा

ज़फ़र गोरखपुरी

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