दीवार Poetry (page 57)

ज़िंदा आदमी से कलाम

अबरार अहमद

तुम जो आते हो

अबरार अहमद

ये रह-ए-इश्क़ है इस राह पे गर जाएगा तू

अबरार अहमद

तुझ से वाबस्तगी रहेगी अभी

अबरार अहमद

गुरेज़ाँ था मगर ऐसा नहीं था

अबरार अहमद

फ़िक्र का गर सिलसिला मौजूद है

अबरार आबिद

कफ़-ए-ख़िज़ाँ पे खिला मैं इस ए'तिबार के साथ

आबिद सयाल

शहर से जब भी कोई शहर जुदा होता है

आबिद मलिक

इक अजनबी की तरह है ये ज़िंदगी मिरे साथ

आबिद मलिक

दश्त में छाँव कोई ढूँड निकाली जाए

आबिद करहानी

अजनबी

आबिद आलमी

वो जो हर राह के हर मोड़ पर मिल जाता है

आबिद आलमी

दे गया आख़िरी सदा कोई

आबिद आलमी

जो कहते हैं किधर दीवानगी है

आबिद अख़्तर

क्यूँ वो मिलने से गुरेज़ाँ इस क़दर होने लगे

अब्दुस्समद ’तपिश’

ख़ौफ़-ओ-वहशत बर-सर-ए-बाज़ार रख जाता है कौन

अब्दुस्समद ’तपिश’

आँख थी सूजी हुई और रात भर सोया न था

अब्दुस्समद ’तपिश’

हक़ मिरा मुझ को मिरे यार नहीं देते हैं

अब्दुश्शुकूर आसी

अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी

अब्दुर्रहीम नश्तर

न पहुँचे छूट कर कुंज-ए-क़फ़स से हम नशेमन तक

अब्दुल्ल्ला ख़ाँ महर लखनवी

अना रही न मिरी मुतलक़-उल-इनानी की

अब्दुल्लाह कमाल

कभी सोचा है मिट्टी के अलावा

अब्दुल्लाह जावेद

याद यूँ होश गँवा बैठी है

अब्दुल्लाह जावेद

समुंदर पार आ बैठे मगर क्या

अब्दुल्लाह जावेद

कभी प्यारा कोई मंज़र लगेगा

अब्दुल्लाह जावेद

हर लम्हा मर्ग-ओ-ज़ीस्त में पैकार देखना

अब्दुल्लाह जावेद

म्याँ क्या हो गर अबरू-ए-ख़मदार को देखा

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

महफ़िल इश्क़ में जो यार उठे और बैठे

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

आँखों में मुरव्वत तिरी ऐ यार कहाँ है

अब्दुल रहमान एहसान देहलवी

ख़्वाब की बस्ती में अफ़्साने का घर

अब्दुल मन्नान तरज़ी

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