गुबार Poetry (page 11)

रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले

गुलज़ार

कहीं तो गर्द उड़े या कहीं ग़ुबार दिखे

गुलज़ार

हयात-ए-रवाँ

गुलनाज़ कौसर

न मर के भी तिरी सूरत को देखने दूँगा

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

क्यूँकर न ख़ुश हो सर मिरा लटक्का के दार में

गोया फ़क़ीर मोहम्मद

उबल पड़ा यक-ब-यक समुंदर तो मैं ने देखा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मुझे ग़ुबार उड़ाता हुआ सवार लगा

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

बन से फ़सील-ए-शहर तक कोई सवार भी नहीं

ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर

उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं

ग़ुलाम मौला क़लक़

नक़्श-बर-आब नाम है सैल-ए-फ़ना मक़ाम

ग़ुलाम मौला क़लक़

जौहर-ए-आसमाँ से क्या न हुआ

ग़ुलाम मौला क़लक़

दीदा-ए-सर्फ़-ए-इंतिज़ार है शम्अ

ग़ुलाम मौला क़लक़

ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम

ग़ुलाम मौला क़लक़

मिरी विरासत में जो भी कुछ है वो सब इसी दहर के लिए है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

मिरे नज्म-ए-ख़्वाब के रू-ब-रू कोई शय नहीं मिरे ढंग की

ग़ुलाम हुसैन साजिद

ख़ुदा-ए-बर्तर ने आसमाँ को ज़मीन पर मेहरबाँ किया है

ग़ुलाम हुसैन साजिद

तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं

ग़ालिब अयाज़

हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना

ग़ालिब अयाज़

यक-ज़र्रा-ए-ज़मीं नहीं बे-कार बाग़ का

ग़ालिब

पा-ब-दामन हो रहा हूँ बस-कि मैं सहरा-नवर्द

ग़ालिब

न लेवे गर ख़स-ए-जौहर तरावत सब्ज़ा-ए-ख़त से

ग़ालिब

न होगा यक-बयाबाँ माँदगी से ज़ौक़ कम मेरा

ग़ालिब

मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं

ग़ालिब

लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले

ग़ालिब

जिस जा नसीम शाना-कश-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार है

ग़ालिब

जब तक दहान-ए-ज़ख़्म न पैदा करे कोई

ग़ालिब

हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है

ग़ालिब

है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे

ग़ालिब

गुलशन में बंदोबस्त ब-रंग-ए-दिगर है आज

ग़ालिब

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