तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
वहाँ तो छोड़ के आए हैं हम ग़ुबार अपना
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हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
बस तेरे लिए उदास आँखें
कभी गुमान कभी ए'तिबार बन के रहा
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
हम उस के जब्र का क़िस्सा तमाम चाहते हैं
हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
फिर यही रुत हो ऐन मुमकिन है