फिर यही रुत हो ऐन मुमकिन है
पर तिरा इंतिज़ार हो कि न हो
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जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
कभी गुमान कभी ए'तिबार बन के रहा
हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो
जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है
बस तेरे लिए उदास आँखें
दर्द जब दस्तरस-ए-चारागराँ से निकला