भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
ये आरज़ू का शजर है ख़िज़ाँ-रसीदा सही
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ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है
हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
दर्द जब दस्तरस-ए-चारागराँ से निकला
बस तेरे लिए उदास आँखें
हम उस के जब्र का क़िस्सा तमाम चाहते हैं
कभी गुमान कभी ए'तिबार बन के रहा