ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
तुझ को देखा तो मैं एहसास-ए-ज़ियाँ से निकला
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हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
फिर यही रुत हो ऐन मुमकिन है
दर्द जब दस्तरस-ए-चारागराँ से निकला
कभी गुमान कभी ए'तिबार बन के रहा
बस तेरे लिए उदास आँखें
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है
तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही