हवा के होंट खुलें साअत-ए-कलाम तो आए
ये रेत जैसा बदन आँधियों के काम तो आए
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तमाम उम्र उसे चाहना न था मुमकिन
जबीन-ए-शौक़ पे गर्द-ए-मलाल चाहती है
हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो
ज़िंदगानी में सभी रंग थे महरूमी के
तुम्हारे दर से उठाए गए मलाल नहीं
हुआ करेगा हर इक लफ़्ज़ मुश्क-बार अपना
भले ही छाँव न दे आसरा तो देता है
जहाँ ख़राब सही हम बदन-दरीदा सही
बस तेरे लिए उदास आँखें
कभी गुमान कभी ए'तिबार बन के रहा