गुलिस्ताँ Poetry (page 9)

घर के ज़िंदाँ से उसे फ़ुर्सत मिले तो आए भी

हबीब जालिब

शराब पी जान तन में आई अलम से था दिल कबाब कैसा

हबीब मूसवी

कभी बे-कली कभी बे-दिली है अजीब इश्क़ की ज़िंदगी

हबीब अहमद सिद्दीक़ी

तारीकियों में अपनी ज़िया छोड़ जाऊँगा

गुहर खैराबादी

मैं ग़र्क़ वहाँ प्यास के पैकर की तरह था

गुहर खैराबादी

बहुत वाक़िफ़ हैं लब-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ से

गोर बचन सिंह दयाल मग़मूम

क्या बताऊँ आज वो मुझ से जुदा क्यूँकर हुआ

गोपाल कृष्णा शफ़क़

मिली राह वो कि फ़रार का न पता चला

ग़ुलाम मुर्तज़ा राही

तसल्ली को हमारी बाग़बाँ कुछ और कहता है

ग़ुबार भट्टी

मुझे किस तरह से न हो यक़ीं कि उसे ख़िज़ाँ से गुरेज़ है

ग़ुबार भट्टी

न होते शाद आईन-ए-गुलिस्ताँ देखने वाले

ग़ौस मोहम्मद ग़ौसी

बेवफ़ा के वा'दे पर ए'तिबार करते हैं

ग़नी एजाज़

ज़िक्र मेरा ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं

ग़ालिब

सियाही जैसे गिर जाए दम-ए-तहरीर काग़ज़ पर

ग़ालिब

शब कि वो मजलिस-फ़रोज़-ए-ख़ल्वत-ए-नामूस था

ग़ालिब

रौंदी हुई है कौकबा-ए-शहरयार की

ग़ालिब

मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किए हुए

ग़ालिब

लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर

ग़ालिब

हुजूम-ए-ग़म से याँ तक सर-निगूनी मुझ को हासिल है

ग़ालिब

हसद से दिल अगर अफ़्सुर्दा है गर्म-ए-तमाशा हो

ग़ालिब

हर क़दम दूरी-ए-मंज़िल है नुमायाँ मुझ से

ग़ालिब

बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना

ग़ालिब

वह ज़ुल्म-ओ-सितम ढाए और मुझ से वफ़ा माँगे

फ़िरदौस गयावी

एक रंगीनी ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर

फ़िराक़ गोरखपुरी

परछाइयाँ

फ़िराक़ गोरखपुरी

तेज़ एहसास-ए-ख़ुदी दरकार है

फ़िराक़ गोरखपुरी

इश्क़ की मायूसियों में सोज़-ए-पिन्हाँ कुछ नहीं

फ़िराक़ गोरखपुरी

हिज्र-ओ-विसाल-ए-यार का पर्दा उठा दिया

फ़िराक़ गोरखपुरी

बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में

फ़िराक़ गोरखपुरी

फूलों को गुलिस्ताँ में कब रास बहार आई

फ़िगार उन्नावी

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