शरीर Poetry (page 28)

सवाल सख़्त था दरिया के पार उतर जाना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

सराब-ए-जिस्म को सहरा-ए-जाँ में रख देना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

मुझे मंज़ूर काग़ज़ पर नहीं पत्थर पे लिख देना

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

छाँव को तकते धूप में चलते एक ज़माना बीत गया

फ़ज़ा इब्न-ए-फ़ैज़ी

कोई आँख चुपके चुपके मुझे यूँ निहारती है

फ़े सीन एजाज़

आख़िरी लफ़्ज़

फ़ातिमा हसन

रूह की माँग है वो जिस्म का सामान नहीं

फ़ातिमा हसन

मुनव्वर जिस्म-ओ-जाँ होने लगे हैं

फ़सीह अकमल

कुछ नया करने की ख़्वाहिश में पुराने हो गए

फ़सीह अकमल

यूँ मुसल्लत तो धुआँ जिस्म के अंदर तक है

फ़र्रुख़ जाफ़री

सुना है हर घड़ी तू मुस्कुराता रहता है

फ़ारूक़ शफ़क़

कोई भी शख़्स न हंगामा-ए-मकाँ में मिला

फ़ारूक़ शफ़क़

छाँव की शक्ल धूप की रंगत बदल गई

फ़ारूक़ शफ़क़

मातम-ए-नीम-ए-शब

फ़ारूक़ नाज़की

हिसार-ए-जिस्म से आगे निकल गया होता

फ़ारूक़ नाज़की

सलीब-ए-मौजा-ए-आब-ओ-हवा पे लिक्खा हूँ

फ़ारूक़ मुज़्तर

न पानियों का इज़्तिरार शहर में

फ़ारूक़ मुज़्तर

अपनी आँखों के हिसारों से निकल कर देखना

फ़ारूक़ मुज़्तर

बिछड़ना मुझ से तो ख़्वाबों में सिलसिला रखना

फ़ारूक़ बख़्शी

एक पुराना ख़्वाब

फरीहा नक़वी

नश्शे में जो है कोहना शराबों से ज़ियादा

फ़ारिग़ बुख़ारी

मैं कि अब तेरी ही दीवार का इक साया हूँ

फ़ारिग़ बुख़ारी

क्या अदू क्या दोस्त सब को भा गईं रुस्वाइयाँ

फ़ारिग़ बुख़ारी

मसअला आज मिरे इश्क़ का तू हल कर दे

फ़रहत नदीम हुमायूँ

जान ये सरकशी-ए-जिस्म तिरे बस की नहीं

फ़रहत एहसास

फ़रार हो गई होती कभी की रूह मिरी

फ़रहत एहसास

बे-बदन रूह बने फिरते रहोगे कब तक

फ़रहत एहसास

तराना-ए-रेख़्ता

फ़रहत एहसास

ख़ुद-आगही

फ़रहत एहसास

बिछड़े घर का साया

फ़रहत एहसास

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