शरीर Poetry (page 30)

जिस्म के पार वो दिया सा है

फ़रहत एहसास

हम न प्यासे हैं न पानी के लिए आए हैं

फ़रहत एहसास

हमें जब अपना तआरुफ़ कराना पड़ता है

फ़रहत एहसास

हमें जब अपना तआरुफ़ कराना पड़ता है

फ़रहत एहसास

है शोर साहिलों पर सैलाब आ रहा है

फ़रहत एहसास

घर बनाने में तमाम अहल-ए-सफ़र लग गए हैं

फ़रहत एहसास

इक हवा सा मिरे सीने से मिरा यार गया

फ़रहत एहसास

दोनों का ला-शुऊ'र है इतना मिला हुआ

फ़रहत एहसास

चराग़-ए-शहर से शम-ए-दिल-ए-सहरा जलाना

फ़रहत एहसास

बुझ गए सारे चराग़-ए-जिस्म-ओ-जाँ तब दिल जला

फ़रहत एहसास

बे-रंग बड़े शहर की हस्ती भी वहीं थी

फ़रहत एहसास

बहुत मुमकिन था हम दो जिस्म और इक जान हो जाते

फ़रहत एहसास

बदन और रूह में झगड़ा पड़ा है

फ़रहत एहसास

आख़िर उस के हुस्न की मुश्किल को हल मैं ने किया

फ़रहत एहसास

बे-अजल काम न अपना किसी उनवाँ निकला

फ़ानी बदायुनी

वो पहले अंधे कुएँ में गिराए जाते हैं

फख्र ज़मान

कुछ बात नहीं जिस्म अगर मेरा जला है

फख्र ज़मान

घर से तुम्हारी दी हुई चीज़ें निकाल दें

फख़्र अब्बास

अपने ख़ला में ला कि ये तुम को दिखा रहा हूँ मैं

फ़ैज़ान हाशमी

लगा कि जैसे किसी काँपते हिरन को छुआ

फ़ैज़ ख़लीलाबादी

तुम ये कहते हो अब कोई चारा नहीं

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

निसार मैं तेरी गलियों के

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

नज़्म

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मुझ से पहली सी मोहब्बत मिरी महबूब न माँग

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मिरे हमदम मिरे दोस्त!

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

मौज़ू-ए-सुख़न

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

एक रह-गुज़र पर

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

दरीचा

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

चंद रोज़ और मिरी जान

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

बोल

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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