ऋतु Poetry (page 17)

इश्क़-ए-सितम-परस्त क्या हुस्न-ए-सितम-शिआ'र क्या

बासित भोपाली

यूँ खुल गया है राज़-ए-शिकस्त-ए-तलब कभी

बशीर ज़ैदी असीर

यूँही बे-सबब न फिरा करो कोई शाम घर में रहा करो

बशीर बद्र

उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओ

बशीर बद्र

चुप-चाप सुलगता है दिया तुम भी तो देखो

बशर नवाज़

कहता है हर मकीं से मकाँ बोलते रहो

बाक़ी सिद्दीक़ी

सैर में तेरी है बुलबुल बोस्ताँ बे-कार है

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

ख़ाल-ए-लब आफ़त-ए-जाँ था मुझे मालूम न था

बक़ा उल्लाह 'बक़ा'

ये रात

बाक़र मेहदी

मिरे सफ़र में ही क्यूँ ये अज़ाब आते हैं

बलवान सिंह आज़र

चाल अपनी अदा से चलते हैं

बकुल देव

न दाइम ग़म है ने इशरत कभी यूँ है कभी वूँ है

ज़फ़र

गई यक-ब-यक जो हवा पलट नहीं दिल को मेरे क़रार है

ज़फ़र

जो झुक के मिलते थे जलसों में मेहरबाँ की तरह

बदनाम नज़र

खुलता नहीं कि हम में ख़िज़ाँ-दीदा कौन है

अज़्म बहज़ाद

रसूल-ए-काज़िब

अज़ीज़ क़ैसी

कावाक

अज़ीज़ क़ैसी

पस-ए-तर्क-ए-इश्क़ भी उम्र-भर तरफ़-ए-मिज़ा पे तरी रही

अज़ीज़ क़ैसी

दिल कुश्ता-ए-नज़र है महरूम-ए-गुफ़्तुगू हूँ

अज़ीज़ लखनवी

मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर

अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा

तू भी वफ़ा के रूप में अब ढल के देख ले

अज़हर जावेद

हमेशा वाहिद-ए-यकता बयाँ से गुज़रा है

अज़हर हाश्मी

चार-सू आलम-ए-इम्काँ में अँधेरा देखा

औज लखनवी

पत्तों को छोड़ देता है अक्सर ख़िज़ाँ के वक़्त

अतुल अजनबी

वो बात जिस से ये डर था खुली तो जाँ लेगी

आतिफ़ ख़ान

पहुँचा दिया उमीद को तूफ़ान-ए-यास तक

अतहर नासिक

हर्फ़ लर्ज़ां हैं कि होंटों पे वो आएँ कैसे?

अतीक़ असर

चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए

अता शाद

चोब-ए-सहरा भी वहाँ रश्क-ए-समर कहलाए

अता शाद

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