मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर
मिरी तमाम बहारों को बे-ख़िज़ाँ कर दे
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वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को
उस ने चाहा था कि छुप जाए वो अपने अंदर
मैं उस के सामने उर्यां लगूँगी दुनिया को
तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का
गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
निकल पड़े न कहीं अपनी आड़ से कोई
मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
मैं रौशनी हूँ तो मेरी पहुँच कहाँ तक है
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं
मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में