चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
उसे रुला तो गया कम से कम धुआँ मेरा
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टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के
हमें दी जाएगी फाँसी हमारे अपने जिस्मों में
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
वक़्त हाकिम है किसी रोज़ दिला ही देगा
उस की हर बात समझ कर भी मैं अंजान रही
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर
मैं रौशनी हूँ तो मेरी पहुँच कहाँ तक है
पकड़ने वाले हैं सब ख़ेमे आग और बेहोश
हम से ज़ियादा कौन समझता है ग़म की गहराई को
जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में