जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में
ख़ुद को बाँटेगा तो देगा मिरा हिस्सा मुझ को
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मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
शिव तो नहीं हम फिर भी हम ने दुनिया भर के ज़हर पिए
जिन को दीवार-ओ-दर भी ढक न सके
ज़रा सी देर में वो जाने क्या से क्या कर दे
खोल रहे हैं मूँद रहे हैं यादों के दरवाज़े लोग
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
ख़्वाब दरवाज़ों से दाख़िल नहीं होते लेकिन
बुझा के रख गया है कौन मुझ को ताक़-ए-निस्याँ पर