बुझा के रख गया है कौन मुझ को ताक़-ए-निस्याँ पर
मुझे अंदर से फूंके दे रही है रौशनी मेरी
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मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
उस की हर बात समझ कर भी मैं अंजान रही
किस क़दर कम-असास हैं कुछ लोग
थकन से चूर हूँ लेकिन रवाँ-दवाँ हूँ मैं
अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
फ़साना-दर-फ़साना फिर रही है ज़िंदगी जब से
ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
हटा के मेज़ से इक रोज़ आईना मैं ने