ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
तर्जुमे उन के जहाँ भर की ज़बानों में मिले
Gulzar
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उस की हर बात समझ कर भी मैं अंजान रही
थकन से चूर हूँ लेकिन रवाँ-दवाँ हूँ मैं
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
हमें दी जाएगी फाँसी हमारे अपने जिस्मों में
वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
न जाने कब से बराबर मिरी तलाश में है
मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
उस ने चाहा था कि छुप जाए वो अपने अंदर
सुनने वाले मिरा क़िस्सा तुझे क्या लगता है
टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा