ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की
सिर्फ़ इक लम्हा बरसता रहा सावन बन के
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हटा के मेज़ से इक रोज़ आईना मैं ने
मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
जाने कितने राज़ खुलें जिस दिन चेहरों की राख धुले
सुनने वाले मिरा क़िस्सा तुझे क्या लगता है
टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
मिरे मिज़ाज को सूरज से जोड़ता क्यूँ है
आप भी रेत का मल्बूस पहन कर देखें
लिया है किस क़दर सख़्ती से अपना इम्तिहाँ हम ने
धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी