धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
शाम तक मैं दास्ताँ से वाक़िआ हो जाऊँगी
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किस क़दर कम-असास हैं कुछ लोग
न जाने कब से बराबर मिरी तलाश में है
कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
कभी गोकुल कभी राधा कभी मोहन बन के
मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
हम मता-ए-दिल-ओ-जाँ ले के भला क्या जाएँ
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा
उस ने चाहा था कि छुप जाए वो अपने अंदर
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं