मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
ये बात ख़ुद पे मैं किस तरह आश्कार करूँ
Anwar Masood
Ahmad Faraz
Jaun Eliya
Mohsin Naqvi
Allama Iqbal
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Gulzar
Wasi Shah
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(803) Peoples Rate This
वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
चमन पे बस न चला वर्ना ये चमन वाले
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
आज कम-अज़-कम ख़्वाबों ही में मिल के पी लेते हैं, कल
उस की हर बात समझ कर भी मैं अंजान रही
हम से ज़ियादा कौन समझता है ग़म की गहराई को
पकड़ने वाले हैं सब ख़ेमे आग और बेहोश
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
मैं रौशनी हूँ तो मेरी पहुँच कहाँ तक है