ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
अगर मैं ज़ख़्म हूँ उस का तो भर के देखूँगी
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टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
आप भी रेत का मल्बूस पहन कर देखें
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
हटा के मेज़ से इक रोज़ आईना मैं ने
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर
हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
किसी जनम में जो मेरा निशाँ मिला था उसे
कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की