मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
ज़िंदगी ओढ़े हुए मैं बे-ख़बर सोती रही
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वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को
कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
पड़ा है ज़िंदगी के इस सफ़र से साबिक़ा अपना
एक दिए ने सदियों क्या क्या देखा है बतलाए कौन
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
शिव तो नहीं हम फिर भी हम ने दुनिया भर के ज़हर पिए
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में
तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में