कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
मैं चूक जाऊँ तो वो उँगलियाँ जला लेगा
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धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
पकड़ने वाले हैं सब ख़ेमे आग और बेहोश
आप भी रेत का मल्बूस पहन कर देखें
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
उस की हर बात समझ कर भी मैं अंजान रही
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
चराग़ों ने हमारे साए लम्बे कर दिए इतने
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
निकलना ख़ुद से मुमकिन है न मुमकिन वापसी मेरी