कोई मौसम मेरी उम्मीदों को रास आया नहीं
फ़स्ल अँधियारों की काटी और दिए बोती रही
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गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
उस की हर बात समझ कर भी मैं अंजान रही
चमन पे बस न चला वर्ना ये चमन वाले
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
खोल रहे हैं मूँद रहे हैं यादों के दरवाज़े लोग
मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को