किसी जनम में जो मेरा निशाँ मिला था उसे
पता नहीं कि वो कब उस निशान तक पहुँचा
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पड़ा है ज़िंदगी के इस सफ़र से साबिक़ा अपना
मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर
न याद आया न भूला न सानेहा मुझ को
मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा
वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की
न जाने कब से बराबर मिरी तलाश में है
लिया है किस क़दर सख़्ती से अपना इम्तिहाँ हम ने
हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को