मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
कि पल भर में मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई मुझ पर
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मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊँगी
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
उस ने चाहा था कि छुप जाए वो अपने अंदर
तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का
मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
तमाम उम्र किसी और नाम से मुझ को
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
आप भी रेत का मल्बूस पहन कर देखें
लगाए पीठ बैठी सोचती रहती थी मैं जिस से
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा