मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊँगी
तो यूँ हँसेगा कि मुझ को उदास कर देगा
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मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
निकलना ख़ुद से मुमकिन है न मुमकिन वापसी मेरी
इक वही खोल सका सातवाँ दर मुझ पे मगर
मेरा भी हर अंग था बहरा उस का जिस्म भी गूँगा था
आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
ज़रा सी देर में वो जाने क्या से क्या कर दे
बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
लिया है किस क़दर सख़्ती से अपना इम्तिहाँ हम ने
कहने वाला ख़ुद तो सर तकिए पे रख कर सो गया
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा