मैं भी साहिल की तरह टूट के बह जाती हूँ
जब सदा दे के बुलाता है समुंदर मुझ को
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वो मिरा साया मिरे पीछे लगा कर खो गया
शिव तो नहीं हम फिर भी हम ने दुनिया भर के ज़हर पिए
मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
अलावा इक चुभन के क्या है ख़ुद से राब्ता मेरा
पड़ा है ज़िंदगी के इस सफ़र से साबिक़ा अपना
गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
हमें दी जाएगी फाँसी हमारे अपने जिस्मों में
ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
मर के ख़ुद में दफ़्न हो जाऊँगी मैं भी एक दिन
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
जाने कितने राज़ खुलें जिस दिन चेहरों की राख धुले