मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
कि जैसे और किसी दूसरे के घर में हूँ
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हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
लगाए पीठ बैठी सोचती रहती थी मैं जिस से
किसी जनम में जो मेरा निशाँ मिला था उसे
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
ख़ुद में उतरूँगी तो मैं भी लापता हो जाऊँगी
कहने वाला ख़ुद तो सर तकिए पे रख कर सो गया