मैं अपने आप से टकरा गई थी ख़ैर हुई
कि आ गया मिरी क़िस्मत से दरमियान में वो
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मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
थकन से चूर हूँ लेकिन रवाँ-दवाँ हूँ मैं
मर के ख़ुद में दफ़्न हो जाऊँगी मैं भी एक दिन
हम से ज़ियादा कौन समझता है ग़म की गहराई को
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
निकल पड़े न कहीं अपनी आड़ से कोई
इस घर के चप्पे चप्पे पर छाप है रहने वाले की
मेरे अंदर कोई तकता रहा रस्ता उस का
जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में
फ़साना-दर-फ़साना फिर रही है ज़िंदगी जब से
धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
चराग़ों ने हमारे साए लम्बे कर दिए इतने