निकल पड़े न कहीं अपनी आड़ से कोई
तमाम उम्र का पर्दा न तोड़ दे कोई
Faiz Ahmad Faiz
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मैं अपने आप से टकरा गई थी ख़ैर हुई
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
अपनी बीती हुई रंगीन जवानी देगा
हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर
टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
आज कम-अज़-कम ख़्वाबों ही में मिल के पी लेते हैं, कल
एक दिए ने सदियों क्या क्या देखा है बतलाए कौन