टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
वो आदमी जो मिरी दास्तान तक पहुँचा
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मैं उस की बात के लहजे का ए'तिबार करूँ
आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
खोल रहे हैं मूँद रहे हैं यादों के दरवाज़े लोग
एक दिए ने सदियों क्या क्या देखा है बतलाए कौन
मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
कोई मौसम मेरी उम्मीदों को रास आया नहीं
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
इस घर के चप्पे चप्पे पर छाप है रहने वाले की
पकड़ने वाले हैं सब ख़ेमे आग और बेहोश
जिन को दीवार-ओ-दर भी ढक न सके
एक मुद्दत से ख़यालों में बसा है जो शख़्स
मिरे अंदर ढंडोरा पीटता है कोई रह रह के