आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
कौन मेरी ही अदालत में बुलाता है मुझे
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हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है
कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा
वरक़ उलट दिया करता है बे-ख़याली में
हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
निकलना ख़ुद से मुमकिन है न मुमकिन वापसी मेरी
लगाए पीठ बैठी सोचती रहती थी मैं जिस से
मैं भी साहिल की तरह टूट के बह जाती हूँ
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं