तमाम उम्र किसी और नाम से मुझ को
पुकारता रहा इक अजनबी ज़बान में वो
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किसी जनम में जो मेरा निशाँ मिला था उसे
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
लिया है किस क़दर सख़्ती से अपना इम्तिहाँ हम ने
लगाए पीठ बैठी सोचती रहती थी मैं जिस से
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा
हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
आज कम-अज़-कम ख़्वाबों ही में मिल के पी लेते हैं, कल
मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊँगी
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त