मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
कौन जंगल में उगे पेड़ को पानी देगा
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अलावा इक चुभन के क्या है ख़ुद से राब्ता मेरा
निकलना ख़ुद से मुमकिन है न मुमकिन वापसी मेरी
तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
सुनने वाले मिरा क़िस्सा तुझे क्या लगता है
हम मता-ए-दिल-ओ-जाँ ले के भला क्या जाएँ
शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है