हम मता-ए-दिल-ओ-जाँ ले के भला क्या जाएँ
ऐसी बस्ती में जहाँ कोई लुटेरा भी नहीं
Habib Jalib
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Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Allama Iqbal
Rahat Indori
Wasi Shah
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वो मिरा साया मिरे पीछे लगा कर खो गया
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
हम से ज़ियादा कौन समझता है ग़म की गहराई को
उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर
ज़रा सी देर में वो जाने क्या से क्या कर दे
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
जाने कितने राज़ खुलें जिस दिन चेहरों की राख धुले
एक दिए ने सदियों क्या क्या देखा है बतलाए कौन
मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में