तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
लोग दे देते हैं टूटे हुए प्याले मुझ को
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मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
इस घर के चप्पे चप्पे पर छाप है रहने वाले की
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
हम मता-ए-दिल-ओ-जाँ ले के भला क्या जाएँ
मैं किसी जन्म की यादों पे पड़ा पर्दा हूँ
शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
वफ़ा के नाम पर पैरा किए कच्चे घड़े ले कर
मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
न जाने कब से बराबर मिरी तलाश में है