मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
इक शिकन और मिरे माथे पे बना देता है
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कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
मैं उस की बात के लहजे का ए'तिबार करूँ
मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
मैं उस के सामने उर्यां लगूँगी दुनिया को
ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
तिश्नगी मेरी मुसल्लम है मगर जाने क्यूँ
मेरा भी हर अंग था बहरा उस का जिस्म भी गूँगा था
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं
वफ़ा के नाम पर पैरा किए कच्चे घड़े ले कर