अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
तुम गए वक़्त की मानिंद गँवा दो मुझ को
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मिरे मिज़ाज को सूरज से जोड़ता क्यूँ है
तमाम उम्र किसी और नाम से मुझ को
लगाए पीठ बैठी सोचती रहती थी मैं जिस से
हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर
टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
वफ़ा के नाम पर पैरा किए कच्चे घड़े ले कर
इक वही खोल सका सातवाँ दर मुझ पे मगर
सुनने वाले मिरा क़िस्सा तुझे क्या लगता है
वरक़ उलट दिया करता है बे-ख़याली में
कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का