इक वही खोल सका सातवाँ दर मुझ पे मगर
एक शब भूल गया फेरना जादू वो भी
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तमाम उम्र किसी और नाम से मुझ को
सुनने वाले मिरा क़िस्सा तुझे क्या लगता है
वरक़ उलट दिया करता है बे-ख़याली में
शिव तो नहीं हम फिर भी हम ने दुनिया भर के ज़हर पिए
मैं भी साहिल की तरह टूट के बह जाती हूँ
न जाने कब से बराबर मिरी तलाश में है
तू आया तो द्वार भिड़े थे दीप बुझा था आँगन का
खोल रहे हैं मूँद रहे हैं यादों के दरवाज़े लोग
मिरे अंदर ढंडोरा पीटता है कोई रह रह के
लिया है किस क़दर सख़्ती से अपना इम्तिहाँ हम ने
मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को