अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
और नहीं कुछ तो कोई मार ही डाले मुझ को
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हमें दी जाएगी फाँसी हमारे अपने जिस्मों में
लहू से उठ के घटाओं के दिल बरसते हैं
अपनी बीती हुई रंगीन जवानी देगा
हम हैं एहसास के सैलाब-ज़दा साहिल पर
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
मर के ख़ुद में दफ़्न हो जाऊँगी मैं भी एक दिन
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
मिरे मिज़ाज को सूरज से जोड़ता क्यूँ है
शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
बुझा के रख गया है कौन मुझ को ताक़-ए-निस्याँ पर