शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
बे-ख़बर सोए हुए अपने मकानों में मिले
Gulzar
Jaun Eliya
Allama Iqbal
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Javed Akhtar
Mohsin Naqvi
Anwar Masood
Parveen Shakir
Ahmad Faraz
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मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
वो मिरा साया मिरे पीछे लगा कर खो गया
वो इक नज़र से मुझे बे-असास कर देगा
थकन से चूर हूँ लेकिन रवाँ-दवाँ हूँ मैं
अहमियत का मुझे अपनी भी तो अंदाज़ा है
रूठ जाएगा तो मुझ से और क्या ले जाएगा
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
ज़रा मुश्किल से समझेंगे हमारे तर्जुमाँ हम को
हटा के मेज़ से इक रोज़ आईना मैं ने
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर