मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
पराई आग में कोई न हाथ डालेगा
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मेरा भी हर अंग था बहरा उस का जिस्म भी गूँगा था
लिया है किस क़दर सख़्ती से अपना इम्तिहाँ हम ने
मुझे चखते ही खो बैठा वो जन्नत अपने ख़्वाबों की
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
हम हैं एहसास के सैलाब-ज़दा साहिल पर
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
वक़्त हाकिम है किसी रोज़ दिला ही देगा
अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊँगी
मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
उस की हर बात समझ कर भी मैं अंजान रही
मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही