वक़्त हाकिम है किसी रोज़ दिला ही देगा
दिल के सैलाब-ज़दा शहर पे क़ब्ज़ा मुझ को
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हमें दी जाएगी फाँसी हमारे अपने जिस्मों में
वो मिरा साया मिरे पीछे लगा कर खो गया
ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
आज कम-अज़-कम ख़्वाबों ही में मिल के पी लेते हैं, कल
खोल रहे हैं मूँद रहे हैं यादों के दरवाज़े लोग
पकड़ने वाले हैं सब ख़ेमे आग और बेहोश
ज़िंदगी के सारे मौसम आ के रुख़्सत हो गए
हम कोई नादान नहीं कि बच्चों की सी बात करें
मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर
ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
हम से ज़ियादा कौन समझता है ग़म की गहराई को