ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
मिरा शरीक-ए-सफ़र आफ़्ताब होता है
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जिन को दीवार-ओ-दर भी ढक न सके
किसी जनम में जो मेरा निशाँ मिला था उसे
इक वही खोल सका सातवाँ दर मुझ पे मगर
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
हम ने सब को मुफ़्लिस पा के तोड़ दिया दिल का कश्कोल
शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
एक दिए ने सदियों क्या क्या देखा है बतलाए कौन
आज कम-अज़-कम ख़्वाबों ही में मिल के पी लेते हैं, कल
मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
उम्र भर रास्ते घेरे रहे उस शख़्स का घर